अवधेश कुमार
राहुल गांधी द्वारा हाल में लोक सभा के अंदर और बाहर दिए जा रहे कुछ वक्तव्यों का गहराई से विश्लेषण करने की आवश्यकता है। लोक सभा में उन्होंने भाजपा पर हमला करते हुए हिन्दू शब्द की अपने अनुसार व्याख्या की तो गुजरात के राजकोट में कहा कि आडवाणी जी ने जो अयोध्या आंदोलन आरंभ किया उसे आईएनडीआईए ने हरा दिया है। लोक सभा में उन्होंने कहा कि जो लोग हिन्दू-हिन्दू करते हैं, वो 24 घंटे हिंसा-हिंसा, नफरत-नफरत करते हैं। बाद में उन्होंने कहा कि नरेन्द्र मोदी पूरा हिन्दू समाज नहीं हैं, भाजपा पूरा हिन्दू समाज नहीं है, संघ पूरा हिन्दू समाज नहीं है।
राजकोट और लोक सभा के दोनों बयान अलग-अलग दिखाई दे सकते हैं, पर हैं दोनों एक दूसरे से जुड़े हुए और कई मायनों में उससे ज्यादा डरावने जितना हमने पहली दृष्टि में महसूस किया। राहुल गांधी के रणनीतिकार और सलाहकार उन्हें समझा रहे हैं कि संघ, भाजपा और मोदी के वैचारिक व निजी विरोध के तीखे तेवर और हमलावर वक्तव्यों से कांग्रेस को चुनाव में लाभ मिला है, इसलिए आगे और तीखा व हमलावर बनना है। किंतु हिन्दू, हिन्दुत्व और राम जन्मभूमि आंदोलन न दलीय राजनीति का विषय है, और न केवल भाजपा का। क्या फैजाबाद संसदीय क्षेत्र से भाजपा उम्मीदवार की पराजय अयोध्या आंदोलन की पराजय है?
राहुल के सलाहकारों, रणनीतिकारों को या तो अयोध्या आंदोलन और उसके महत्त्व का ज्ञान और अहसास नहीं है, या वो राजनीतिक लाभ के लिए इसे अत्यंत छोटा और भाजपा तक सीमित करने की कुत्सित रणनीति पर चल रहे हैं। न अयोध्या आंदोलन लालकृष्ण आडवाणी ने आरंभ किया और न ही उनके बैठ जाने से यह समाप्त हुआ। सही है कि राजनीति में भाजपा ने ही अयोध्या आंदोलन में एक समय पूरी शक्ति लगाई। 6 दिसम्बर, 1992 के बाद उसकी तीन राज्य सरकारें बर्खास्त हो गई। भाजपा ने 1988 के पालमपुर अधिवेशन में अयोध्या आंदोलन को प्रस्ताव में शामिल किया। उच्चतम न्यायालय के फैसले में भी स्पष्ट है कि यह आंदोलन अंग्रेजों के समय और उसके पहले भी था तथा आजादी के बाद न्यायिक सहित कई स्तरों पर लड़ाई चलती रही। भाजपा ने तय किया कि आंदोलन को धार देने के लिए हमें प्रमुख कार्यक्रमों में इसे शामिल करना चाहिए और इसी कारण सोमनाथ से अयोध्या तक आडवाणी जी की रथ यात्रा निश्चित हुई। आडवाणी जी ने 6 दिसम्बर, 1992 के बाबरी विध्वंस के बाद इंडियन एक्सप्रेस में लिखे अपने लेख में इसे जीवन का सबसे दुखद दिन कहा था। उसके बाद वे आंदोलन में सक्रिय नहीं दिखे। क्या इससे बाबरी मस्जिद की जगह श्रीराम मंदिर निर्माण का आंदोलन खत्म हो गया?
विपक्ष की रणनीति अयोध्या पर भाजपा के विचार और व्यवहार को परास्त साबित करने की है। फैजाबाद से जीते सपा सांसद अवधेश प्रसाद को लोक सभा में आगे बिठाकर विपक्ष भाजपा के अंदर सतत पराजय का भाव स्थापित करने के साथ आम लोगों के जेहन में भी इसे बनाए रखने की रणनीति अपना रहा है। अयोध्या आंदोलन केवल मंदिर निर्माण का आंदोलन नहीं था। भारत सहित संपूर्ण विश्व के हिन्दू समाज को सांस्कृतिक रूप से पुनर्जागृत करने, प्रखर करने और भविष्य में मानवता का नेतृत्व करने की दृष्टि से उसके मानसिक निर्माण का आंदोलन था। यह प्रक्रिया अभी पूरी नहीं हुई है। बावजूद हम देख सकते हैं कि पिछले कुछ वर्षो में संपूर्ण विश्व का हिन्दू अपने धर्म-सभ्यता-संस्कृति, आचार-विचार को लेकर पहले से ज्यादा मुखर और आवश्यकता पडऩे पर आक्रामक हुआ है। इसका असर भारत के साथ उन सारे देशों में है, जहां-जहां हिन्दुओं की ठीकठाक संख्या है। इसके विरोधियों की कोशिश है कि उनके अंदर किसी तरह हीन ग्रंथि पैदा करो। अंग्रेजों ने इतिहास, समाजशास्त्र तथा सभ्यता की व्याख्याओं से हिन्दू समाज के अंदर यही हीन ग्रंथि पैदा की थी जो अभी तक खत्म नहीं हुई है।
राहुल की संसद में कही गई बात या अयोध्या आंदोलन को हराने का वक्तव्य पूरे समाज को फिर से हीन ग्रंथि का शिकार बनाने की कोशिश है। वैसे राहुल और उनके रणनीतिकारों की समझ अयोध्या आंदोलन के बारे में अत्यंत सतही है। 1528 ईस्वीं में मीर बाकी द्वारा श्रीराम मंदिर को तोडऩे के साथ ही देश, काल और परिस्थिति के अनुरूप विरोध और संघर्ष आरंभ हो गया था जो अंग्रेजों के शासनकाल में और आजादी के बाद भी जारी रहा। मंदिर मुक्ति का संघर्ष अत्यंत लंबा है जिसमें सिखों का भी योगदान है। बैरागियों, रामानंदी संप्रदाय से लेकर वैष्णव पंथ के अनेक संतों ने इस आंदोलन में भाग लिया। 1857 की क्रांति के समय बैरागियों और साधु-संतों ने मस्जिद की दीवार पर श्रीराम, सीताराम लिखा और बगल में चबूतरा बना कर उस पर पूजा तक आरंभ की।
प्रश्न है कि क्या आईएनडीआईए ने एक संसदीय चुनाव में विजय प्राप्त कर पूरे आंदोलन को परास्त कर दिया? वैसे अयोध्या नाम का लोक सभा क्षेत्र नहीं है। फैजाबाद लोक सभा क्षेत्र है जहां भाजपा के उम्मीदवार को करीब 4 लाख 99 हजार 522 एवं सपा को 5 लाख 54 हजार 289 वोट मिले। 54 हजार 567 मतों की विजय को क्या पूरे आंदोलन की पराजय मान लिया जाए? दूसरे, अयोध्या में मंदिर निर्माण का आंदोलन अयोध्या तक सीमित नहीं था। पूरे देश में आंदोलन चला। यह एक जिले का सीमित आंदोलन नहीं था। व्यापक लक्ष्यों वाला भौगोलिक दृष्टि से भी व्यापक क्षेत्रों तक विस्तारित आंदोलन था।
सच है कि हिन्दुओं का समर्थन भाजपा को अयोध्या के कारण बढऩा आरंभ हुआ पर 6 दिसम्बर, 1992 के बाद लंबे समय तक भाजपा द्वारा इसके पक्ष में बड़ा आंदोलन न किए जाने तथा अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनने के बाद राम मंदिर पर कोई ठोस पहल न होने से उनकी अपनी ही पार्टी नहीं, संगठन परिवार और देश भर के समर्थकों के अंदर नाराजगी पैदा हुई। वाजपेयी सरकार की 2004 में पराजय के पीछे यह बड़ा कारण था। उस समय भी फैजाबाद से भाजपा के उम्मीदवार पराजित हो गए थे तो क्या उससे अयोध्या आंदोलन ही परास्त हो गया? चुनाव में हार-जीत से किसी आंदोलन के समर्थन या विरोध का मूल्यांकन अपने आप में दोषपूर्ण है। जिस खतरनाक नरेटिव को राहुल गांधी, आईएनडीआईए देश-विदेश के उनके समर्थक बढ़ा रहे हैं, उनको ठीक से समझना और उनका सही विचारों और तथ्यों के साथ प्रतिवाद करना समय की मांग है।
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