December 30, 2024

हिम सन्देश

न्यूज़ पोर्टल

स्थायी समस्या का मौसमी समाधान

स्थायी समस्या का मौसमी समाधान

अजीत द्विवेदी
दिल्ली और उत्तर भारत के ज्यादातर शहरों में प्रदूषण की समस्या चिरस्थायी है। हर साल सर्दियों में आसमान में धूल और धुंध की काली चादर छाई रहती है। धीरे धीरे बहुत छोटे आकार के बेहद नुकसानदेह धूल कण यानी पीएम 2.5 हवा में बढ़ते जा रहे हैं। साथ ही नाइट्रोजन हाइड्रोऑक्साइड यानी एनओ2 की मात्रा भी बढ़ती जा रही है, जो इस बात का संकेत है कि गाडिय़ों के धुएं से होने वाले प्रदूषण को कम करने की सारी कोशिशें नाकाम हो गई हैं। ऐसा नहीं है कि सर्दियों के अलावा साल के बाकी समय में दिल्ली और उत्तर भारत के शहर प्रदूषण से मुक्त होते हैं। तब हवा थोड़ी साफ जरूर रहती है लेकिन वह मौसम की वजह से होती है। बारिश या तेज हवाओं की वजह से छोटे छोटे धूल कण हवा में ऊपर उठ जाते हैं, लटके नहीं रहते हैं इसलिए उनका असर थोड़ा कम रहता है।

प्रदूषण की इस समस्या के कई पहलू हैं। हवा के साथ साथ पानी भी प्रदूषित है क्योंकि नदियों की सफाई नहीं होती है और शहरों में गिनती के वाटर ट्रीटमेंट प्लांट हैं, जिनसे समूची आबादी के लिए स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराना नामुमकिन है। रसायनिक खाद और कीटनाशक के इस्तेमाल से मिट्टी लगातार प्रदूषित होती जा रही है और खाद्य शृंखला भी प्रदूषित हो गई है। फूड चेन इतनी प्रदूषित हो गई है कि घरों में आने वाली सब्जियां हों या मांस-मछली, सब केमिकल से भरे हुए हैं। मरे हुए जानवरों की शरीर इतना जहरीला हो गया है कि उनका मांस खाकर कुत्ते पागल हो रहे हैं और शहरों-कस्बों में तांडव कर रहे हैं तो गिद्ध से लेकर कौओं तक की प्रजाति उन्हें खाकर समाप्त होती जा रही है। लेकिन हवा, पानी और खाद्य वस्तुओं में से किसी का प्रदूषण खत्म या कम करने के लिए कोई ठोस और दीर्घावधि की योजना नहीं बन रही है।

प्रदूषण की चर्चा भी सिर्फ तभी होती है, जब सर्दियों में राजधानी दिल्ली के आसमान पर धूल और धुएं की परत चढ़ती है।
हर साल की सर्दियों की तरह अभी फिर दिल्ली की हवा जहरीली हो गई है। लोगों का दम घुट रहा है। अस्पतालों में सांस की बीमारी वाले मरीजों की संख्या बढऩे लगी है। जो सक्षम हैं वे दिल्ली से बाहर के अस्थायी ठिकानों पर चले गए हैं या जाने वाले हैं। सरकारें सक्रिय हो गई हैं और न्यायपालिक का भी मौखिक हथौड़ा चलने लगा है। लग रहा है जैसे यह सबसे बड़ी समस्या है, जिसका समाधान इस बार निकल कर रहेगा और अगर नहीं निकला तो जैसा कि सर्वोच्च अदालत ने कहा है, उसका बुलडोजर चलेगा और कई दिनों तक नहीं रूकेगा। लेकिन हकीकत यह है कि यह सब कुछ हर साल होता है।

हर साल सर्दियों में वायु प्रदूषण बढऩे पर पुरानी गाडिय़ों के दिल्ली में आने पर पाबंदी लगती है, पटाखों पर लगाई गई अदालती रोक को नए फैसले के जरिए दोहराया जाता है, पानी का छिडक़ाव शुरू होता है, बच्चों के स्कूल बंद कर दिए जाते हैं, वर्क फ्रॉम होम के लिए कहा जाता है और पार्टियां एक दूसरे के ऊपर आरोप लगाती हैं। इतने में दो महीने बीत जाते हैं और फिर इसके साथ ही प्रदूषण से हर साल होने वाली मौसमी लड़ाई समाप्त हो जाती है। इसके बाद पूरे साल कुछ नहीं किया जाता है। यह हर साल की कहानी है।

दिल्ली और समूचे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र यानी एनसीआर में प्रदूषण के तीन मुख्य स्रोत हैं। पहला, पड़ोसी राज्यों में धान की फसल कटने के बाद उसके डंठल यानी पराली को जलाना। दूसरा, गाडिय़ों का धुआं और तीसरा, उद्योग व निर्माण कार्यों से होने वाला प्रदूषण और सडक़ किनारे पड़ा कचरा। सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की बेंच ने दिल्ली और एनसीआर के प्रदूषण पर सुनवाई करते हुए पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश तीनों राज्यों को पराली जलाने पर तत्काल रोक लगाने का निर्देश दिया। सर्वोच्च अदालत ने पंजाब को लेकर खासतौर से नाराजगी जताई। गौरतलब है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के लोगों को भरोसा दिलाया था कि पंजाब में उनकी सरकार बन गई तो वे पंजाब में पराली जलाने पर रोक लगा देंगे और दिल्ली के लोगों को स्वच्छ हवा उपलब्ध कराएंगे।

लेकिन अब जबकि दिल्ली की हालात पहले से भी खराब हो गए है तो केजरीवाल और उनकी पूरी सरकार हरियाणा व उत्तर प्रदेश और केंद्र सरकार पर आरोप लगाने में जुट गई है। यह उनकी खासियत है कि वे हर बार गोल पोस्ट बदल देते हैं और हर गड़बड़ी का ठीकरा दूसरे पर फोडऩे लगते हैं। हकीकत यह है कि हरियाणा और उत्तर प्रदेश में पिछले कुछ बरसों में पराली जलाने की घटनाओं में बहुत कमी आई है। पंजाब में भी कुछ कमी आई है लेकिन वह पर्याप्त नहीं है। तभी सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब से ज्यादा नाराजगी जताई। परंतु केजरीवाल और उनकी पार्टी पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। वे दो महीने का समय काट रहे हैं ताकि अपने आप हवा साफ हो जाए।

अगर सरकारें चाहें तो पराली जलाने की घटनाओं को बहुत कम कर सकती हैं। इसके लिए कई उपाय सुझाए गए हैं। धान की मौजूदा प्रजाति की जगह दूसरी प्रजाति की खेती को प्रोत्साहित करने का उपाय सुझाया गया है तो साथ ही धान की बजाय दूसरी फसल की खेती को प्रोत्साहित करने का सुझाव भी दिया गया है। अगर केंद्र सरकार दूसरी फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी घोषित करती है, सरकारी खरीद की व्यवस्था बनाती है और राज्य सरकारें उस पर बोनस की घोषणा करती हैं तो किसान दूसरी फसल उपजाने की ओर अग्रसर होंगे। हिंदुत्व की राजनीति को साधने के लिए जिस तरह सरकारें गौमूत्र और गोबर खरीद रही हैं अगर उसी तरह से पराली खरीदने या उसके निपटान की कोई अन्य व्यवस्था करती हैं तो इस समस्या से आसानी से निजात पाई जा सकती है।

जहां तक गाडिय़ों के धुएं का मामला है तो इसके लिए भी सरकारों को दीर्घावधि की योजनाएं बनानी होंगी। यह पराली जलाने से होने वाले प्रदूषण की तरह एक-दो महीने का मामला नहीं है, बल्कि पूरे साल चलने वाली समस्या है। इसलिए सरकारों को इस पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए। स्वच्छ ईंधन से चलने वाली गाडिय़ों को प्रोत्साहित करने के साथ साथ सार्वजनिक परिवहन की व्यवस्था को ठीक करना होगा। यह रातों-रात होने वाला काम नहीं है। सरकारें इलेक्ट्रिक और सीएनजी वाहनों को प्रोत्साहित कर रही हैं लेकिन अभी इनकी कीमत ज्यादा है और इनके साथ कई व्यावहारिक समस्याएं भी हैं। उन्हें जल्दी से जल्दी दूर करने की कोशिश करनी चाहिए। साथ साथ डीजल व पेट्रोल की गाडिय़ों को सडक़ से हटाने के उपाय भी करने होंगे। भारत की मुश्किल यह है कि ऑटोमोबाइल की बिक्री का अर्थव्यवस्था में बड़ा योगदान होता है इसलिए भारत में स्कैंडिनेवियाई देशों की तरह गाड़ी खरीदने पर लाइसेंस और पार्किंग आदि अनिवार्य करने के नियम नहीं लागू किया जा सकता है। लेकिन सरकार चाहे तो सार्वजनिक परिवहन को बेहतर और सस्ता बना कर आम लोगों को उसके इस्तेमाल के लिए प्रेरित कर सकती हैं।

प्रदूषण का तीसरा कारण औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाला धुआं व कचरा और निर्माण कार्यों व सडक़ किनारे पड़े कचरे से उडऩे वाली धूल है। इसमें से सडक़ किनारे पड़े कचरे का निपटान तो स्थानीय निकायों को करना होता है और यह उनका निकम्मापन है, जो यह एक समस्या बनी हुई है। बाकी मसलों से निपटने का भी कोई शॉर्टकट रास्ता नहीं है। भारत जैसे विकासशील देश में न औद्योगिक इकाइयों को बंद किया जा सकता है और न निर्माण कार्यों को रोका जा सकता है। उनमें प्रदूषण कितना कम किया जा सकता है इसकी कोई दीर्घावधि की योजना बनानी होगी। कुल मिल कर प्रदूषण की समस्या चिरस्थायी और व्यापक है, जिससे निपटने के लिए मौसमी उपाय कारगर नहीं हो सकते हैं।