अनिल चतुर्वेदी
तकऱीबन ढाई दशक बाद दिल्ली की सत्ता में वापिसी के लिए भाजपा फिर एक प्रयोग करने की तैयारी में हैं। और यह प्रयोग होगा पढ़ी लिखी महिलाओं को राजनीति में बढ़ाने का। 26 साल पहले भी भाजपा ने विधानसभा चुनावों से दो महीने पहले सुषमा स्वाराज को दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाया था पर भाजपा तब इस खेल में फेल हो गई थी। अब जब दिल्ली में आप पार्टी के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इस्तीफ़ा देने के बाद दिल्ली सरकार में ही मंत्री आतिशी को मुख्यमंत्री बनाया है तो भाजपा को फिर सुध आई है। तभी 2025 में होने जा रहे दिल्ली विधानसभा के चुनावों में फ़तेह की उम्मीद और मुख्यमंत्री को लेकर भाजपा पढ़ी लिखी महिलाओं का जो नरेटिव आप पार्टी ने आतिशी को मुख्यमंत्री बनाकर बनाया है उसी को भाजपा अपनाने की तैयारी में बताई जा रही है। हाँ यह अलग बात है कि भाजपा बांसुरी के साथ-साथ लोकसभा हारी और पूर्व केंद्रीय मंत्री रहीं स्मृति ईरानी को भी सीएम पद के लिए आगे बढ़ाने की कोशिश में बताई जा रही। भाजपा को लगता है कि चुनाव में ग्लैमर का तडक़ा भी कहीं न कहीं उसे फ़ायदा पहुँचा सकता है। दिल्ली की नई मुख्यमंत्री आतिशी दिल्ली में पूसा रोड स्थित स्प्रिंगडेल्स स्कूल से स्कूली शिक्षा लेने के बाद स्टीफ़न्स कालेज में पढीं और फिर आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से शिक्षा लेने के बाद राजनीति में आईं।
कुछ इसी तरह भाजपा की टिकट पर इस बार नई दिल्ली से सांसद बनी बांसुरी स्वराज भी रहीं हैं। बांसुरी स्वराज ने भी आक्सफोर्ड से कानून की पढ़ाई कर हाईकोर्ट व सुप्रीम कोर्ट में वकालत की और फिर राजनीति में आईं है। और पहली बार में नई दिल्ली से लोकसभा जीत सांसद बनी है। अब भला कोई यह कहे कि युवा और विदेश से पढ़ाई के बाद महिला मुख्यमंत्री का आप का नरेटिव समझने के बाद भाजपा भी यह करती दिख रही है तो आश्चर्य भी कैसा ? या यूँ कहिए कि दोनों महिलाएँ,युवा ,विदेश में पढ़ी, उम्र भी कऱीब एक समान ही है और राजनीति में हाथ अजमा रही हैं। हाँ यह अलग बात है कि आतिशी का मक़सद आगे अरविंद केजरीवाल को फिर मुख्यमंत्री बनाने में माहौल तैयार करने की भी जि़म्मेवारी बताई जा रही है। पर बांसुरी के साथ शायद ऐसा नहीं ।उनकी पार्टी भाजपा तो केवल इस नरेटिव को अजमाकर दिल्ली की सत्ता में लौटने की जुगत में है।और साथ ही वे पार्टी के लिए महिलाओं के बीच वोटों के लिए ज़मीन तैयार कर सकेंगी।
पर सवाल तो यह भी है कि जिन तीन पूर्व सांसदों को पार्टी विधानसभा चुनावों में उतारने की तैयारी में और उनसे आसपास की विधानसभाओं में वोटों पर असर पडऩे की उम्मीद है या यह कि वोटों की ख़ातिर तीनों सांसद पार्टी से सीएम पद की माँग उठाकर वोटों पर असर डाल सकेंगे आखरि़ उनके साथ पार्टी क्या खेला करना चाहती है?
सोचिए दस साल सांसद रहने के बाद विधायक बन भी गए तो क्या कहेंगे लोगबाग और कैसा महसूस करते रहेंगे ये तीनों नेता। लेकिन पार्टी का आदेश सिरमौर, सो पूर्व सांसद रमेश विधूडी, प्रवेश वर्मा और मीनाक्षी लेखी के अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में मैदान में उतारे जाने की संभावना है। चर्चा है कि पार्टी ने इन तीनों को इशारा कर दिया है। चर्चा तो यह भी है कि टिकट दिए जाने पहले इन तीनों पूर्व सांसदों की जीत हार की संभावनाओं को सर्वे करा कर टटोला जाएगा। हालाँकि पार्टी ने अपने सभी छह पूर्व सांसदों से विधानसभा चुनाव की तैयारी में लग जाने और समय समय पर पार्टी आलाकमान को रिपोर्ट देने को कहा है। पूर्व सांसदों की टिकट फिसड्डी होने के चलते कटी या फिर पार्टी की दिल्ली फ़तह की मंशा के चलते यह बात अलग है पर भाजपा को भरोसा है कि ये तीनों पूर्व सांसद विधानसभा चुनावों में अपने लोकसभा के तहत आने वाली पाँच विधानसभा क्षेत्रों में असर डाल सकेंगे। इसके साथ ही मौजूदा सांसदों को भी कहा गया है कि अपने संसदीय क्षेत्र में में भाजपा उम्मीदवारों को जिताने की नैतिक जि़म्मेदारी लें।
अब भला भाजपा के ही लोग यह कहें कि चुनाव लड़ाए जाने वाले पूर्व सांसदों का मनोबल बनाए रखने के लिए पार्टी उन्हें सत्ता में आने पर मुख्यमंत्री बनाए जाने वाला ताक़त का केप्सूल भी देगी तो आश्चर्य भी कैसा। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के जेल में रहने और कांग्रेस व आप के वोटों के बंट जाने से भाजपा को दिल्ली में वापिसी की उम्मीद दिख रही है। और तभी वह फूंक-फूंक कर कदम बढ़ा रही है। अब भाजपा अपनी रणनीति से दिल्ली में जीत हासिल कर पाती हैं या नहीं यह इंतज़ार की बात है पर भाजपाईयों को केजरीवाल एंड पार्टी को इतने हल्के में लेना भी एक भूल ही साबित होना है। भले कांग्रेस के साथ उसका गठबंधन हो या नहीं। तभी दिल्ली की राजनीति को लेकर यह कहा भी जाने लगा है कि आप पार्टी जहां अपना राजनीतिक काम ख़त्म करती है भाजपा और कांग्रेस वहाँ से शुरू करते हैं।
हरियाणा विधानसभा चुनावों में पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा क्या करिश्मा दिखाते हैं यह बाद की बात है पर टिकट बँटवारे तक तो हुड्डा की ही चली। या यूं कहिए कि 90 सीटों वाली विधानसभा के लिए 72 फीसद टिकट हुड्डा की मजऱ्ी से दिए गए। कहा जा रहा है कि आब्जर्बर और राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की देखरेख में दावेदारों को लेकर पार्टी का सर्वे कराया गया और जीतने वाले दावेदारों को ही हुड्डा ने टिकट दी है।सांसद कुमारी शैलजा और रणदीप सिंह सुरजेवाला सहित केंद्रीय नेतृत्व को बाक़ी टिकटों पर ही सब्र करना पड़ा। अब ऐसा क्यों और कैसे पार्टी ने किया यह तो रही हुड्डा पर भरोसे की बात लेकिन जो ख़ास रहा वह यह कि राहुल गांधी इस पूरे एपीसोड पर फिलाहल ख़ामोश बताए जा रहे हैं। भले हुड्डा ने टिकट बँटवारे के पहले ही पार्टी में यह साफ़ कर दिया हो कि पिछली बार की तरह इस बार कोई संशय नहीं रहना चाहिए।
पर राहुल गांधी की चुप्पी का कुछ मतलब भी हो सकता है। पार्टी हलकों में तो यह भी सवाल गउठ रहा है कि रणदीप सिंह सुरजेवाला और कुमारी शैलजा का यह कह देना कि मुख्यमंत्री बनने के लिए पहले से विधायकों की संख्या बल होना ज़रूरी नहीं ,कोई संकेत तो दे ही रहा है और यह तब जबकि राहुल गांधी ने अभी तक हुड्डा के नाम पर हाँ ही नहीं की है। अब भले ऐसा इसलिए कहा जा रहा हो कि हुड्डा ख़ेमे में ही हुड्डा को लेकर फिलाहल सहमति नहीं है। या फिर हुड्डा ख़ेमे से ही उनके बेटे सांसद दीपेन्द्र हुड्डा को मुख्यमंत्री बनाने की बात चल रही है लेकिन यह ज़रूर है कि जितने दम से हुड्डा ने टिकट बाँटे हैं उतने दम से समर्थक हुड्डा को लेकर सीएम की बात नहीं कर रहे।और ऐसा कोई पहलीबार नहीं होगा। 2005 में जब हुड्डा को हरियाणा का सीएम बनाया गया था तब भजनलाल के दम पर चुनाव लड़ा गया था। और भजनलाल बहुमत हासिल कराने के बाद भी सीएम नहीं बन पाए थे।
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