गेंद फिर तमिलनाडु के राज्यपाल के पाले में है। अब उनसे अपेक्षा रहेगी कि वे संविधान के प्रावधान एवं उसकी भावना के मुताबिक आचरण करें, ताकि उनके और राज्य सरकार के बीच बढ़ते गए टकराव को हल करने की दिशा में आगे बढ़ा जा सके। विधानसभाओं से पारित विधेयकों को बिना कोई कारण बताए लटकाए रहने के मामले में पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपालों को सलाह दी थी कि वे आग से ना खेलें। सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान की इस व्यवस्था को स्पष्ट किया था कि विधानसभा के पारित विधेयक को राज्यपाल अनिश्चित काल तक अपने पास लंबित नहीं रख सकते। कोर्ट की उस टिप्पणी का एक परिणाम यह हुआ कि तमिलनाडु के राज्यपाल एनआर रवि ने आठ पारित विधेयकों को फिर से विधानसभा को लौटा दिया, जबकि दो विधेयकों को उन्होंने विचारार्थ राष्ट्रपति को भेज दिया।
मगर विसंगति यह रही कि राज्यपाल ने विधेयकों को तमिलनाडु विधानसभा को लौटाते समय यह नहीं बताया कि उन्हें उन पर क्या आपत्ति है और वे उनमें क्या सुधार चाहते हैं। अब तमिलनाडु विधानसभा ने उन सभी विधेयकों को उनके मूल रूप में दोबारा पारित कर दिया है। मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने इस मौके पर संविधान के अनुच्छेद 200 का हवाला दिया, जिसमें प्रावधान है कि दोबारा पारित विधेयक को मंजूरी देने से राज्यपाल इनकार नहीं कर सकते।
तो अब गेंद एक बार फिर से राज्यपाल के पाले में है। इस बार उनसे अपेक्षा रहेगी कि वे संविधान के प्रावधान एवं उसकी भावना के मुताबिक आचरण करें, ताकि राज्य में उनके और राज्य सरकार के बीच बढ़ते गए टकराव को हल करने की दिशा में बढ़ा जा सके। इससे वे उन राज्यपालों के लिए भी एक उदाहरण पेश करेंगे, जिनके बारे में यह धारणा बन गई है कि वे निर्वाचित राज्य सरकारों के कामकाज में बेवजह अड़ंगा डाले हुए हैं और संबंधित सरकारों को जनादेश की भावना के मुताबिक काम नहीं करने दे रहे हैं। ऐसी घटनाएं लगातार होने के कारण यह धारणा भी बनी है कि राज्यपाल ऐसा आचरण केंद्र सरकार के इशारे पर कर रहे हैं।
बेशक, राज्यपाल राज्यों में केंद्र का प्रतिनिधि होते हैं। लेकिन उनके कर्त्तव्य और अधिकार संविधान से तय हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कई बार इन संवैधानिक प्रावधानों की उचित व्याख्या की है। उसकी हाल की टिप्पणी भी उसी दिशा में थी। इसलिए उसकी चेतावनी पर सबको ध्यान देना चाहिए। अब इस विवाद का अंत होना चाहिए।
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